सार
जवान बलराज सिंह ने कहा कि एसआई साहब के पास ही में आकर ग्रेनेड गिरा और उसका छर्रा उनके पांव में लग गया। पैर में से ब्लीडिंग बहुत ज्यादा होने लग गई थी और वे दर्द से चिल्ला रहे हैं कि कोई पट्टी बांधो, कुछ कीजिए ताकि खून बहना रुक जाए किसी तरह से। फर्स्ट एड को बुला रहे थे लेकिन फर्स्ट एड के एसटीएफ के जवान पहले से ही घायल थे। उनकी मरहम पट्टी की जा रही थी। इतने में ये दर्द से बहुत चिल्ला रहे थे तो मैंने अपनी पगड़ी फाड़ी और उसकी पट्टी बना कर उनके पांव में बांध दी।
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रायपुर के रामकृष्ण अस्पताल में भर्ती बलराज सिंह के पेट में गोली लगी थी। लेकिन इलाज के बाद अब वे खतरे से बाहर हैं। उनकी बहादुरी के चर्चे सब तरफ हैं। राज्य के विशेष पुलिस महानिदेशक आरके विज ने अस्पताल पहुंच कर बलराम को एक पगड़ी भी भेंट की है। पंजाब के तरनतारन से खडूर साहब रोड पर कोई साढ़े पांच किलोमीटर दूर बाईं ओर कलेर गांव है। बलराज सिंह इसी गांव के रहने वाले हैं।
स्नातक की पढ़ाई कर चुके बलराज सिंह, अक्तूबर 2014 में सीआरपीएफ में भर्ती हुए थे और मूल रूप से असम में तैनात हैं। बलराज के परिवार में उनकी तीन बड़ी बहनें हैं, जिनकी शादी हो चुकी है। पिता पहले दुबई में काम करते थे, अब गांव में रह कर खेती करते हैं। बलराज बताते हैं कि वे शुरू से फौज में जाना चाहते थे। वे कहते हैं कि हमारे तरनतारन में नौजवानों का सपना होता है वर्दी। फौज में या सीआरपीएफ में या बीएसएफ में। कहीं भी हो, वर्दी पहननी है। पहली पसंद तो आज भी यही है।
कहानी मुठभेड़ की
बलराज सिंह के माता-पिता और उनकी पत्नी अभी गांव में ही हैं और बीजापुर में हुए मुठभेड़ के बाद बलराज उन्हें हर दिन की खबर देते रहते हैं कि अब उनकी तबीयत कैसी है। लेकिन खैरियत जानने के बाद रिश्तेदारों और दोस्तों की दिलचस्पी इस बात में कहीं अधिक रहती है कि उस दिन बीजापुर में हुआ क्या था?
पेट में लगी गोली के घाव अभी हरे हैं, इसलिए मुस्कुराने की कोशिश में भी बलराज सिंह के चेहरे पर दर्द उभर आता है। वे पंजाबी में कहते हैं कि मैं बिल्कुल ठीक-ठाक हूं। सेहत मेरी ठीक-ठाक है। गोली छू के निकल गई और कोई ज्यादा नहीं, बस रिकवर हो रहे हैं धीरे-धीरे मैं फिट हूं।
शनिवार को माओवादियों के साथ मुठभेड़ का मंज़र बयान करते हुए उनकी आंखें चमकने लगती हैं। वे बताते हैं कि शुक्रवार को सीआरपीएफ की टीम बांसागुड़ा कैंप से तर्रेम थाने के लिए रात नौ बजे के आसपास निकली थी। कैंप और थाने के बीच की दूरी करीब 12-13 किलोमीटर है।
बलराज कहते हैं कि वहां से तकरीबन रात एक-डेढ़ बजे के आसपास हमारा ऑपरेशन शुरू हुआ। पूरी रात चलने के बाद हमारा जो तयशुदा टारगेट था, उसे सर्च करने के बाद जब हम वापस आ रहे थे, तभी हमारी पार्टी रुकी। मतलब पानी-वानी पीने लगी। एक टेकरी के ऊपर हॉल्ट किया कुछ देर के लिए।
माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन के लिए उस रात सीआरपीएफ़, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड, स्पेशल टास्क फोर्स और कोबरा बटालियन के 2059 जवानों को लगाया गया था।
इस ऑपरेशन में जिन इलाकों की तलाशी की गई थी, वहां कोई नहीं मिला था। इसके बाद सुरक्षाबलों के जवान आश्वस्त हो गए थे कि आसपास कहीं भी माओवादी नहीं हैं। यूं भी ऑपरेशन खत्म हो चुका था और रात भर की थकी-मांदी टीम लौट रही थी। सुबह के लगभग आठ बजे होंगे, जब जवानों की एक टुकड़ी दो-तीन भागों में बंट कर थोड़ी देर के लिए जोन्नागुड़ा की पहाड़ी के पास रुकी थी।
बलराज बताते हैं कि उसी समय एसपी ने टीम लीडर को संदेश भेजा कि आपके आसपास ही नक्सलियों की एक बड़ी टीम घूम रही है, आप सावधान हो जाएं। रात भर भटकने के बाद थोड़ा सुस्ताने और अपने साथ रखे बिस्किट खाने तक का वक्त जवानों को नहीं मिला।
बलराज कहते हैं कि उसी समय हमारे ऊपर पहाड़ियों से हमला शुरू हो गया। जो भी इन्होंने इंप्रोवाइज बम बना रखे हैं, यूबीजूएल के, मोर्टार के, उनसे इन्होंने हमला बोल दिया। इसमें हमारे बहुत से जवान घायल हुए और साथ में एक-दो लोगों की मौत भी हो गई। उसके बाद टेकरी छोड़ कर हम लोग नीचे मैदान की ओर आ गए। तीन-तरफा हमला था। हम एक तरफ, इनके एंबुश को तोड़ कर इनसे पूरी तरह भिड़ गए।
बलराज और उनके साथी सामने गोलियां बरसाते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन यह इतना आसान नहीं था। बाहर की तरफ़ से जब फायरिंग हुई तो पहले एसटीएफ के जवान उन्हें खदेड़ने के लिए चल दिए। उसके पीछे-पीछे कोबरा बटालियन भी चल दी और जवान माओवादियों पर हावी हो गए।
गोलियां चलाते हुए वे आगे बढ़ रहे थे तभी सामने के एसटीएफ जवान को गोली लगी। उसके बाद बलराज अपनी पोज़ीशन लेने के लिए एक पेड़ की ओर भागे लेकिन तब तक एक गोली उनके पेट को चीरती हुई निकल चुकी थी।इस बीच एक नंबर टीम के विजय और नीरज कटियार ने बलराज को संभाला।
बलराज सिंह कहते हैं कि जब टेकलगुड़ा गाँव के पास हम पहुंचे, तब तक मैं भी घायल हो चुका था। मुझे पेट में गोली लगी थी। बाकि के जो जवान ठीक थे, फाइटिंग की हालत में थे, उन्होंने बॉक्स फॉर्मेट बना कर, जो घायल थे उनको बीच में ले लिया. जो चलने की हालत में नहीं थे, उनको चारपाई बना के या जो कुछ उनके पास था, स्ट्रेचर जैसा बना के उनको निकाला और चॉपर तक पहुंचाया।
जो जवान ठीक-ठाक थे, उनका सारा ध्यान इस बात पर था कि घायल जवानों को अपने साथ ले कर वे सुरक्षित निकल जाएं। बलराज को जैसे एक-एक दृश्य याद है। वे बताते हैं कि जब उन्हें लगा कि वे चल सकते हैं तो उन्होंने पूरा रास्ता पैदल चल कर तय किया। उन्होंने अपने साथियों को कहा कि आप लोग मेरी चिंता न करें, आप मुक़ाबला करें क्योंकि माओवादी लगातार पीछा भी कर रहे थे। इसके बाद दूसरे साथियों ने माओवादियों से मुकाबला किया। तब तक दिन ढलने लगा था।
बलराज सिंह ने हिम्मत नहीं हारी और अपने साथियों के साथ पैदल चलते हुए वे तीन किलोमीटर दूर सिलगेर तक पहुंचे, जहां उन्हें इलाज के लिए रवाना किया गया। बलराज सिंह ने कभी सीधे किसी मुठभेड़ का सामना नहीं किया था। यह उनके लिए पहला अवसर है लेकिन वे चाहते हैं कि जल्दी ठीक हो कर फिर से मैदान में उतरें, फिर माओवादियों से मुक़ाबला करें।
लेकिन उससे पहले उनकी ख्वाहिश है कि अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो इस महीने के अंत में अपना जन्मदिन वे अपने परिवार के साथ मनाएं। यह उनके जीवन का 28वां जन्मदिन है और मौत को मात देकर लौटे हैं, इस लिहाज से पहला जन्म दिन भी।
विस्तार
रायपुर के रामकृष्ण अस्पताल में भर्ती बलराज सिंह के पेट में गोली लगी थी। लेकिन इलाज के बाद अब वे खतरे से बाहर हैं। उनकी बहादुरी के चर्चे सब तरफ हैं। राज्य के विशेष पुलिस महानिदेशक आरके विज ने अस्पताल पहुंच कर बलराम को एक पगड़ी भी भेंट की है। पंजाब के तरनतारन से खडूर साहब रोड पर कोई साढ़े पांच किलोमीटर दूर बाईं ओर कलेर गांव है। बलराज सिंह इसी गांव के रहने वाले हैं।
स्नातक की पढ़ाई कर चुके बलराज सिंह, अक्तूबर 2014 में सीआरपीएफ में भर्ती हुए थे और मूल रूप से असम में तैनात हैं। बलराज के परिवार में उनकी तीन बड़ी बहनें हैं, जिनकी शादी हो चुकी है। पिता पहले दुबई में काम करते थे, अब गांव में रह कर खेती करते हैं। बलराज बताते हैं कि वे शुरू से फौज में जाना चाहते थे। वे कहते हैं कि हमारे तरनतारन में नौजवानों का सपना होता है वर्दी। फौज में या सीआरपीएफ में या बीएसएफ में। कहीं भी हो, वर्दी पहननी है। पहली पसंद तो आज भी यही है।
कहानी मुठभेड़ की
बलराज सिंह के माता-पिता और उनकी पत्नी अभी गांव में ही हैं और बीजापुर में हुए मुठभेड़ के बाद बलराज उन्हें हर दिन की खबर देते रहते हैं कि अब उनकी तबीयत कैसी है। लेकिन खैरियत जानने के बाद रिश्तेदारों और दोस्तों की दिलचस्पी इस बात में कहीं अधिक रहती है कि उस दिन बीजापुर में हुआ क्या था?
पेट में लगी गोली के घाव अभी हरे हैं, इसलिए मुस्कुराने की कोशिश में भी बलराज सिंह के चेहरे पर दर्द उभर आता है। वे पंजाबी में कहते हैं कि मैं बिल्कुल ठीक-ठाक हूं। सेहत मेरी ठीक-ठाक है। गोली छू के निकल गई और कोई ज्यादा नहीं, बस रिकवर हो रहे हैं धीरे-धीरे मैं फिट हूं।
शनिवार को माओवादियों के साथ मुठभेड़ का मंज़र बयान करते हुए उनकी आंखें चमकने लगती हैं। वे बताते हैं कि शुक्रवार को सीआरपीएफ की टीम बांसागुड़ा कैंप से तर्रेम थाने के लिए रात नौ बजे के आसपास निकली थी। कैंप और थाने के बीच की दूरी करीब 12-13 किलोमीटर है।
बलराज कहते हैं कि वहां से तकरीबन रात एक-डेढ़ बजे के आसपास हमारा ऑपरेशन शुरू हुआ। पूरी रात चलने के बाद हमारा जो तयशुदा टारगेट था, उसे सर्च करने के बाद जब हम वापस आ रहे थे, तभी हमारी पार्टी रुकी। मतलब पानी-वानी पीने लगी। एक टेकरी के ऊपर हॉल्ट किया कुछ देर के लिए।
माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन के लिए उस रात सीआरपीएफ़, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड, स्पेशल टास्क फोर्स और कोबरा बटालियन के 2059 जवानों को लगाया गया था।
इस ऑपरेशन में जिन इलाकों की तलाशी की गई थी, वहां कोई नहीं मिला था। इसके बाद सुरक्षाबलों के जवान आश्वस्त हो गए थे कि आसपास कहीं भी माओवादी नहीं हैं। यूं भी ऑपरेशन खत्म हो चुका था और रात भर की थकी-मांदी टीम लौट रही थी। सुबह के लगभग आठ बजे होंगे, जब जवानों की एक टुकड़ी दो-तीन भागों में बंट कर थोड़ी देर के लिए जोन्नागुड़ा की पहाड़ी के पास रुकी थी।
बलराज बताते हैं कि उसी समय एसपी ने टीम लीडर को संदेश भेजा कि आपके आसपास ही नक्सलियों की एक बड़ी टीम घूम रही है, आप सावधान हो जाएं। रात भर भटकने के बाद थोड़ा सुस्ताने और अपने साथ रखे बिस्किट खाने तक का वक्त जवानों को नहीं मिला।
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